Sandeep Jatwa
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SECOND CHANCE
HINDI

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03
​पत्र

यह गुरूवार था। शेखर उसके ऑफ़िस में फ़ोन पर बात कर रहा था लेकिन वह कुर्सी पर नहीं बल्कि टेबल पर बैठा था। वह रोमांचित था क्योंकि उसकी नई फ़ैक्टरी का निर्माण बहुत अच्छा चल रहा था। उसने रिसीवर वापस रखा और वह ऑफ़िस में टहला।

आधे घंटे बाद, शेखर एक फ़ाइल में नाक गड़ाए बैठा था। वह सालों से अपने बिज़नेस को फैलाने की योजना बना रहा था और आख़िरकार उसने एक साहसी क़दम उठा लिया था। यह क़दम उसके उद्योग को एक नई ऊँचाई पर ले जाएगा और इसके बाद सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर पाएगा। आप गलत थे डैड। मैं कामयाब हूँ और आपसे अच्छा बिज़नेस चला रहा हूँ, शेखर ने सोचा। उसे असफलता बर्दाश्त नहीं थी; यह उसे उसके पिता के गुस्सैल लफ़्ज़ों की याद दिलाते थे। ‘तुम अपने ज़िंदगी में कुछ नहीं कर पाओगे। तुम असफल ही रहोगे।’ शेखर ने उन्हें गलत साबित कर दिया था। अब ऐरोवॉक की विकास दर उसके पिता के समय से बेहतर थी।

फ़ाइल टेबल पर रखकर शेखर ने फ़ाइलों के ढ़ेर में एक दूसरी फ़ाइल खोजी और जब वह ऐसा कर रहा था तब उसने कुछ ग़ैर मामूली पाया--एक लिफ़ाफ़ा, मोती सा सफ़ेद एक लिफ़ाफ़ा। उसने अपना नीचला होंठ चाटा। उसने फ़ाइलों के बीच से लिफ़ाफ़ा खींचकर निकाला और उस पर लिखे दो चमकीले हरे शब्द पढ़े--द्वितीय चेतावनी। उसने सोचा, क्या यह कोई मज़ाक है? लेकिन वह जानता था कि प्रथम चेतावनी कोई मज़ाक नहीं लग रही थी। उसने लिफ़ाफ़ा पलटा; वहाँ और कुछ नहीं था सिवाय शब्द द्वितीय चेतावनी  के।

शेखर ने लिफ़ाफ़ा खोला, एक कोमल रेशम से काग़ज़ को खींच कर बाहर निकाला और जब उसने ऐसा किया उसने महसूस किया जैसे उसके ऑफ़िस की हवा विषादपूर्ण ऊर्जा में परिवर्तित हो गई। उसे ऐसा लगा जैसे उसके सिर के ऊपर कुछ था और जब उसने ऊपर देखा वह हैरान रह गया। वह हक्का बक्का था क्योंकि उसके ऑफ़िस के अंदर उसके सिर के कुछ फ़ुट ऊपर काले बादल मंडरा रहे थे। यह कैसे संभव था? शेखर ने सोचा। उसने काग़ज़ की तरफ़ देखा जिस पर हरी चमकीली स्याही से कुछ लिखा था।

मिस्टर शेखर बलराज कपूर,

आपको सूचित किया जाता है कि प्रथम चेतावनी के बावजूद आपके अनुचित कार्य बंद नहीं हो रहे हैं। ये बंद कर दें अथवा ये आपको बहुत बड़ी परेशानी में डाल देंगे। यह आपका दूसरा संदेश है। हमें आशा है कि आप हमें तीसरा व अंतिम संदेश भेजने की वजह नहीं देंगे।
धन्यवाद
न्याय की नगरी

शेखर फटी आँखों से चिट्ठी को घूरता रहा और उसकी आँखों के सामने फ़ोन कॉल तथा बादलों के बवंडर की जीवंत छवि छा गई। जो रोमांच वह कुछ समय पहले तक महसूस कर रहा था वह काफ़ूर हो गया था और उसे लगा जैसे सबकुछ अज्ञात भय की चादर के पीछे छिप गया हो। उसने ऊपर देखा और उसके सिर के ऊपर के बादल घूमने लगे और शेखर की साँस रूक गई।

क्या मैं पागल हूँ? यह कैसे संभव है?
उसने सोचा।

शेखर की उलझन अब ग़ुस्से में बदल गई थी, गुस्सा किसी अज्ञात चीज़ के लिए।

लिफ़ाफ़े पर लिखे द्वितीय चेतावनी  को उसने ग़ौर से देखा और उसे ऐसा लगा जैसे शब्द चेतावनी ने राक्षसी नृत्य किया। उसने ज़ोर से आँखें मिचमिचाई और फिर से शब्द की तरफ़ देखा लेकिन वह निष्प्राण और अचल था।

एक शब्द कैसे नाच सकता है? क्या मैं एक बेवकूफ़ हूँ जो ऐसा सोच रहा हूँ?


शेखर ने क्रोध मिश्रित भय महसूस किया। उसने चिट्ठी, और उस पर लिखे हरे लफ़्ज़ों पर निगाह डाली और चिट्ठी को चार भागों में फाड़ कर टेबल पर फेंक दिया। फटे हुए काग़ज़ के टुकड़ों ने स्वतः ही आग पकड़ ली और नीली-हरी लपटों में टेबल पर जलने लगे। शेखर भौंचक्का यह देखता रहा। उसके सिर पर बादल घूमने लगे और जाकर जलती हुई चिट्ठी में घुल गए। कुछ सेकंड बाद वहाँ कुछ भी असामान्य नहीं था, न बादल, न गंध और न ही राख। वहाँ सफ़ेद लिफ़ाफ़े के अलावा कुछ भी नहीं था।

शेखर ने साँस खींची लेकिन हवा में कोई गंध नहीं थी। उसने टेबल की दराज़ में लिफ़ाफ़ा फेंका और सिर पकड़कर बैठ गया क्योंकि उसका सिर दर्द कर रहा था। उसे लगा जैसे उसका सिर फटने वाला हैं। उसने एक ग्लास पानी से सेरिडॉन  निगल ली।

पाँच मिनट बाद, शेखर ने चपरासी को बुलाया और पूछा, “क्या मेरे लिए कोई चिट्ठी आई थी?”

“नहीं सर।”

“आज, कल, परसों, कभी भी?”

“सर, मैंने लंबे समय से आपके लिए कोई चिट्ठी नहीं देखी।” चपरासी ने जवाब दिया।

“ठीक है,” शेखर ने कहा।

दस मिनट बाद, शेखर एक फ़ाइल को ज़ोर से बंद करके खड़ा हुआ और ऑफ़िस में टहलने लगा। वह किसी भी चीज़ में ध्यान नहीं लगा पा रहा था। वह न चाहते हुए भी चिट्ठी और फ़ोन के बारे में सोच रहा था।
शाम को, शेखर अपने दाएँ हाथ में एक फ़ाइल लिए ऑफ़िस से बाहर आया और योजना विभाग में घुस गया। कर्मचारियों ने खड़े होकर उसका अभिवादन किया जिससे उसका सीना गर्व से फूल गया। उसने पहले ही सभी विभाग के प्रतिनिधियों को बुलवा लिया था। उसने मंच पर जाकर सभी पर नज़र डाली।

“प्लीज़ ध्यान दें,” शेखर ने कहा, और पचास जोड़ी आँखें उसे ताकने लगी। “यह बताते हुए आज मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि हम भारत में सबसे ज़्यादा बिकने वाला शू ब्रान्ड बन गए हैं। पहले स्थान पर यह हमारा लगातार पाँचवाँ साल होता अगर पिछले साल फ़ीटलैंड के कारण हम दूसरे स्थान पर नहीं होते।”
शेखर की नज़र एक महिला पर पड़ी, जो लगभग तीस वर्ष की थी और शायद उसका नाम अनुष्का था। डॉगी स्टाइल, उसने सोचा। उसने फिर से फ़ाइल पर नज़र डाली, और कहा, “इस साल हम पहले स्थान पर हैं और इस साल ऐरोवॉक निश्चित रूप से बिज़नेस वर्ल्ड मैग्ज़ीन  में होगा और हर साल की तरह इस साल भी हमारा सबसे अधिक बिकने वाला जूता कम्फी  ही है।“

सभी ने तालियाँ बजाई; उन्नति ने बेमन से और कैलाश ने  उत्साहित होकर।

“हमारी नई फ़ैक्टरी जल्द ही शुरू हो जाएगी और उसके बाद कोई भी हमारी बराबरी नहीं कर पाएगा,” शेखर ने कहा। “हमारी तिमाही रिपोर्ट बहुत अच्छी ग्रोथ दिखाती है। आप सभी को बधाई!”

जैसे ही शेखर ने बोलना बंद किया उसने अपने कर्मचारियों के सिर के ऊपर हवा में एक विशाल ‘च’ देखा। उसका मुँह अचम्भे से फटा रह गया था; तुरंत ही उसे अपनी प्रतिक्रिया का अहसास हुआ और उसने अपने आप को नियंत्रित कर लिया और विशाल ‘च’ हवा में घुल गया।

‘च’ मतलब चेतावनी...?
शेखर ने सोचा।

-

शुक्रवार सुबह, शेखर कैडिलैक से ऐरोवॉक की तरफ़ जा रहा था और जब वह दाएँ मुड़ा तो उसने पाँच बच्चों को एक गड्ढ़े के पास कुछ करते हुए देखा। वह धीमा होकर उन्हें देखने लगा। बच्चे गड्ढ़े में रस्सी डाल रहे थे। जिज्ञासावश वह कार रोककर उतरा और बच्चों की तरफ़ बढ़ गया। उसने देखा बच्चे पाँच फ़ुट गहरे गड्ढ़े में गिरे एक सफ़ेद कुत्ते के पिल्ले को बचाने की कोशिश कर रहे थे। शेखर को एक सुखद दुर्लभ एहसास हुआ लेकिन वह नहीं जानता था यह दया थी या उस छोटे से पिल्ले के लिए प्रेम था। उसने अपना कोट उतारा, कमीज़ की आस्तीनें चढ़ाई और बिना कुछ सोचे धीरे से गड्ढ़े में उतर गया। पिल्ला डर गया और डर के मारे उसने ख़ुद को कूड़े के ढेर के पीछे छिपा लिया। शेखर ने पिल्ले को पुचकारा और उसे अपनी गोद में उठा लिया। “आराम से दोस्त तुम अब सुरक्षित हो,” शेखर बुदबुदाया और हवा को चूमा व पिल्ला बच्चों को सौंप दिया। बच्चे पिल्ले को लेकर भाग गए और उन्होंने उसका नाम जार्विस रख दिया। शेखर मुस्कुराया, उसने अपना दाहिना पैर गड्ढ़े में एक पत्थर पर रख ख़ुद को ऊपर की ओर धकेला लेकिन उसका जूता पत्थर से फिसल गया और वह लगभग गिरते गिरते बचा लेकिन ख़ुद को गिरने से बचाने में उसको बाएँ हाथ की हथैली पर खरोंच आ गई। उसने फिर से पैर पत्थर पर रखा और पाया कि उसके जूते का तला फट गया और लटक रहा था। “हे भगवान!” वह बड़बड़ाया और उसने ख़ुद को बाहर धकेला। पहले ही ग्राहक के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस के लिए मुझे देर हो गई है।

शेखर तेज़ क़दमों से कार की ओर बढ़ा, कोट पहना और कार से ऐरोवॉक की तरफ़ चल दिया। दस मिनट बाद, उसने सड़क के किनारे छतरी की छाया में जूते सिलते एक मोची को देखा और उसने कैडिलैक रोक दी। फटे जूते पहने ऐरोवॉक जाना अच्छा विचार नहीं लगता। आख़िरकार मैं एक जूते की कंपनी का मालिक हूँ।

शेखर कैडिलैक से बाहर निकलकर मोची के पास गया जो एक गरीब भिखारी की तरह लग रहा था। वह एक दुबला-पतला आदमी था जिसकी काली लंबी घनी दाढ़ी व झबरीले बाल थे।

“क्या तुम इसे ठीक कर सकते हो?” शेखर ने अपना दायाँ पैर ऊपर उठा कर अपने जूते का फटा हुआ तला उसे दिखाया।

मोची उसे एकटक देखता रहा लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया।

“ओए! क्या तुम इसे ठीक कर सकते हो?” शेखर ने पूछा, इस बार और ज़ोर से और ज़्यादा बेअदबी से।
मोची ने पलकें झपकाई, शेखर को देखा व हामी में सिर हिलाया और जूता लेने के लिए हाथ बढ़ाया। शेखर ने अपना दायाँ जूता खोलकर दाएँ पैर से उसकी ओर सरका दिया। मोची ने जूता उठाया और एक मिनट तक उसका अध्ययन कर कहा, “क्या यह इतावली चमड़ा है?”

शेखर ने उसकी ओर देखकर हुंकार भरी।

“इसे ठीक करने में मुझे आधा घंटा लगेगा,” मोची ने कहा।

“नहीं, मैं जल्दी में हूँ,” शेखर ने कहा। “इसमें ज़्यादा से ज़्यादा पाँच मिनट लगना चाहिए।”

“यह इतावली चमड़ा है और इसे अच्छी तरह सिलने में मुझे आधा घंटा लगेगा।”
शेखर ने दूसरे जूतों की तरफ़ देखा, कुछ वहाँ सिलाई के लिए थे और कुछ नए जूते मोची ने सिलकर बेचने के लिए रखे थे।

“मेरे पास इतना वक़्त नहीं है,” शेखर ने कहा। “मुझे वो नए वाले दे दो।” उसने भूरे चमड़े के जूते की ओर इशारा किया।

मोची ने उसके पैरों की तरफ़ देखा और उसे उसकी नाप के बिलकुल वैसे ही जूते निकालकर दें दिए। शेखर ने उन्हें पहना और पाया कि यह उसके लिए बिलकुल सही नाप थी।

“इन्हे सिल दो, मैं शाम को इन्हे लें जाऊँगा,” शेखर ने कहा।

“जी सर।”

“कितने?”

“सात सौ।”

शेखर ने उसे सात सौ रूपये दिए और कार में बैठकर वहाँ से चल दिया। उसे जूते बहुत आरामदायक लगे। इस तरह के जूते ऐरोवॉक 2500 से 5500 रूपये तक बेचती थी। शेखर को जूते पसंद आए थे जो कोई मामूली बात नहीं थी।

वह ऐरोवॉक की तरफ़ बढ़ रहा था। उसकी कार एक बहुत बड़े ज़मीन के टुकड़े के पास से गुज़री जिसकी क़ीमत दो सौ करोड़ थी। यह ज़मीन मेरी है, शेखर ने अपना सिर गर्व से ऊपर उठा लिया। यह ज़मीन का टुकड़ा उसने दो साल पहले ख़रीदा था और तभी से वह जिसके साथ भी व्यापार करता था उसे यह ज़मीन ज़रूर दिखाता था। उस ज़मीन के टुकड़े के तुरंत बाद ही एक जर्जर इमारत थी। शेखर इस जीर्ण-शीर्ण संरचना से नफ़रत करता था जो उसकी जायदाद की खूबसूरती को कम कर रही थी। इस खंडहर पर एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था हेल्पिंग हेण्ड्स। उसने कभी-कभार यहाँ पर कुछ लोगों को भी देखा था।
कितने फ़ुरसती लोग हैं इन्हें और कोई काम नहीं हैं इसलिए चैरिटी कर अपना वक़्त बिताते हैं, शेखर हिक़ारत से मुस्कुराया। उसे लगता था जो भी लोग भिखारियों या अन्य किसी को भी पैसा या और कुछ देते हैं वे उन्हें आलसी बना रहे हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता था जो उसके साथ व्यापार करते थे और अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई का हिस्सा भिखारियों और निकम्मों में बाँट कर उन्हें और कामचोर बनाते थे। उसने कभी किसी को नहीं बताया लेकिन वह जब भी उन्हें देखता था वह उन पर हँसता था।

-

ग्राहक के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस अच्छी रही और माँग पहले से ही बढ़ने लगी थी।
ऑफ़िस में, पुष्पमाला चढ़ी माँ की तस्वीर को एकटक देखने के बाद, अपने गले में भावना की गाँठ महसूस करने के बाद, वह वापस अपनी आरामदायक कुर्सी पर बैठा था और दैनिक भास्कर अख़बार पढ़ रहा था।

अमरीकी राष्ट्र-पति का भारत दौरा अगले महीने। हमारे प्रधानमंत्री ने कहा कि यह दौरा दोनों देशों के रिश्ते व व्यापार मज़बूत करेगा।

यह एक आत्महत्या थी... मीरा उपाध्याय जो आशुतोष उपाध्याय की पत्नी थी नौ महीने पहले अपने ही बेडरूम में पंखे से झूलती पाई गई थी। चिकित्सकों ने उनके अंग रसायनिक जाँच के लिए भेजे थे और जाँच में कोई भी जहरीला पदार्थ उनके शरीर में नहीं पाया गया। डॉक्टर ने हमारे रिपोर्टर को बताया कि यह एक आत्महत्या थी और रिपोर्ट मिलने के बाद जाँच अधिकारी ने फ़ाइल बंद कर दी हैं।
रहस्यमयी फ़ोन कॉल और धधकती हुई चिट्ठी उसकी आँखों के सामने छा गई। शेखर ने अख़बार टेबल पर फेंका और कुर्सी में अपनी स्थिति बदली।


शेखर ने अपने जूते देखे, एक पल सोचा और घंटी बजाई। चपरासी द्वार पर आ गया। “फ़र्स्ट-एड बाक्स ले आओ,” शेखर ने कहा और अपने जूते उतार दिए। “ये जूते मिस्टर मलहोत्रा को दे देना और उनसे कहना मुझे इसकी पूरी रिपोर्ट चाहिए और मेरे लिए एक जोड़ी नए जूते ले आना।”
चपरासी ने जूते उठाए और चला गया। पंद्रह मिनट बाद चपरासी वापस आया, उसके पास एक जोड़ी नए जूते व फ़र्स्ट-एड बाक्स था। “और कुछ, सर?”

शेखर ने सिर हिलाते हुए कहा, “तुम जा सकते हो।” चपरासी वापस चला गया।

शेखर ने बाएँ हाथ की खरोंच को सेवलॉन से साफ़ किया और उस पर बैंड-एड लगा ली।
आधे घंटे बाद, वह ऑफ़िस में काम करने की भरसक कोशिश कर रहा था लेकिन वह काम में क़तई ध्यान नहीं लगा पा रहा था। क्या यह कोई मज़ाक हो सकता है? उसने सोचा। वह इस तरह के विचारों के कारण काम नहीं कर पा रहा था जो उसके लिए पहेली थे और जब भी कोई चीज़ उसे दुविधा में डाल देती थी तो वह कुछ असामान्य सा काम करता था और सिर्फ़ इस विचार ने ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेर दी। वह खड़ा होकर दरवाज़े तक गया और बाहर झाँका, बाहर चपरासी के अलावा कोई नहीं था और वह भी दूसरी तरफ़ देख रहा था। उसने धीरे से दरवाज़ा बंद कर ताला लगा दिया और केबिन के सारे पर्दे भी लगा दिए। वह अपनी टेबल के पास गया और नीचे वाली दराज़ का ताला खोल उसमें से एक डीवीडी निकाली और डीवीडी प्लेयर की तरफ़ बढ़ा और उसमें  डीवीडी डाल दी। वह फिर से बैठने के लिए लौट गया और कुर्सी या सौफे पर बैठने की जगह वह टेबल पर पैर लटकाकर बैठा। टेलीविज़न पर नाम आना शुरू हो गए थे।

वह हाथ में रिमोट थामे बैठा था, ताकि अगर कोई दरवाज़े पर दस्तक देता हैं तो वह फु़टबॉल, बॉक्सिंग या समाचार लगा सके। वह टेलीविज़न की स्क्रीन पर नज़रें गड़ाए बैठा था जिस पर अब संगीत के साथ दो बड़े गुलाबी शब्द दिख रहे थे--पिंक पैन्थर। शेखर कपूर, ऐरोवॉक का चेयरमैन, चुपके चुपके अपने बंद केबिन में मुस्कुराकर कार्टून देखता था।

इस उम्र में भी जब वह कार्टून देखता था तो वह बच्चों की तरह हँसता था और इस समय उसके चेहरे पर एक विचित्र चमक होती थी। यही एक मात्र समय था जब वह हँसता था। अगर उसका कोई कर्मचारी उसे इस समय देख ले तो शायद उसे पहचान ही न पाए।

कार्टून में तल्लीन वह अपनी हँसी की आवाज़ कम रखने का प्रयास कर रहा था। वह चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान लिए कार्टून देख रहा था कि दरवाज़े पर तेज दस्तक ने उसे डरा दिया और गलती से उसके हाथ से रिमोट ज़मीन पर गिर गया। वह टेबल से कूदा, रिमोट उठाया और उस डरे हुए बालक की तरह चैनल पलटने लगा जिसके हाथों मिठाई का मर्तबान टूटते ही उसकी माँ आ गई हो। उसने समाचार का चैनल लगा लिया और हाँफते हुए दरवाज़ा खोलने गया। लोग क्या सोचेंगे अगर उन्हें पता चल जाएँ कि ऐरोवॉक का चेयरमैन चुपके चुपके कार्टून देखता है? भय के अलावा उसे चिढ़ भी आ रही थी क्योंकि उसकी पसंदीदा चीज़ देखने में किसी ने बाधा उत्पन्न की थी।

कोई अब भी उसके ऑफ़िस का दरवाज़ा ठोंक रहा था जैसे वह उसे तोड़ना चाहता हो। शेखर को हैरत हुई कि ऐरोवॉक में किस की इतनी हिम्मत है कि वह शेखर के केबिन के दरवाज़े को इतनी जोर से ठोंके। जब ताला खोलकर उसने दरवाज़ा खोला तो उसके सामने गुलाबी सलवार कमीज़ में एक निहायत ही खूबसूरत युवती खड़ी थी। वह गुस्से में थी शायद इसलिए और अधिक आकर्षक लग रही थी। इस गौरी हसीना की आँखें चमकदार काली थी और उसकी नाक नोंकदार और ठोड़ी अत्यधिक प्यारी थी। उसके मुलायम गालों पर प्राकृतिक लालिमा थी। उसकी काया छरहरी थी और उसके उभार आकर्षक थे।
हैरान शेखर बुत की तरह खड़ा था और विस्मय से उसे घुर रहा था। शेखर को उसके आने की कोई उम्मीद नहीं थी क्योंकि जब तक उसे बुलाया न जाए वह उसके केबिन में कभी नहीं आती थी। वह उन्नति शर्मा थी। शेखर उसके क्रोध और कार्टून देखने में हुई बाधा को भूल गया था।

- - -


उन्नति अंदर आई। ”क्या आपने हृषिता को प्रमोट किया है?” उसने गुस्से से पूछा।

उन्नति ने शेखर की तरफ़ देखा जो अब भी मूर्ति की तरह खड़ा था। उन्नति ने गला साफ़ किया और शेखर ने पलकें झपकाई। उसने फिर से कहा, “क्या आपने हृषिता को प्रमोट किया है?”

“हाँ,” शेखर ने कहा।

“क्यों?”

“क्योंकि मैं बॉस हूँ।”

“मैं यहाँ पर चार साल से हूँ और उसने अभी अपना पहला हफ़्ता भी पूरा नहीं किया।”

शेखर अपनी कुर्सी पर लौटा और कहा, “वह एक काबिल लड़की है।”

“काबिल?!!” उन्नति ने हैरानी से कहा। “उसे नहीं पता इस कंपनी में कितने विभाग हैं, वह नहीं जानती हमारा टर्नओवर कितना हैं, उसे हमारे पीक सीज़न के बारे में नहीं पता, वह तो ये भी नहीं जानती कि यह कंपनी कितने साल पुरानी हैं और आप कहते है वह काबिल है?”

“तुम क्या चाहती हो?”

“मुझे मेरा प्रमोशन चाहिए।”

“ठीक है,” शेखर ने कहा। “यह तुम्हारा हुआ। प्रमोशन के साथ तुम्हें दुगनी तनख़्वाह भी मिलेगी।”
वह मुस्कुराई। चार सालों की कड़ी मेहनत के बाद उसकी तरक्की होने वाली थी। उसे हरगिज़ ऐसी उम्मीद नहीं थी कि उसका मालिक उसे इतनी आसानी से प्रमोट कर देगा। उसे शेखर कपूर बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन वह ख़ुद इसका असल कारण नहीं जानती थी। शायद उसे वह उसके अंहकार के कारण या उसकी अशिष्टता के कारण पसंद नही था या शायद उसे वह उसकी पैनी नज़रों की वजह से पसंद नहीं था जिसमें उसे कुछ दिखाई देता था--एक भूख!

“तुम्हारा प्रमोशन होता है,” शेखर ने कहा। “और अब से तुम हो मेरी पर्सनल सेक्रेटरी।”
उसकी मुस्कान उड़ गई। पर्सनल सेक्रेटरी?

“तुम्हें तुम्हारा प्रमोशन लेटर आधे घंटे में मिल जाएगा।”

“नहीं, मुझे आपकी सेक्रेटरी नहीं बनना। मुझे मेरा प्रमोशन चाहिए।”

“क्यों नहीं? तुम्हें दुगनी तनख़्वाह मिलेगी।”

“नहीं, सेक्रेटरी नहीं, मुझे मेरा प्रमोशन चाहिए।”

“मेरे पास केवल एक ही स्थान हैं,” शेखर ने कहा। “और वह है मेरी PS. अब तुम ख़ुद तय करो तुम्हें यह चाहिए या नहीं।”

उन्नति की साँसे अब तक तेज़ हो चुकी थी, उसने कहा, “फिर हृषिता को प्रमोशन कैसे मिल गया?”

“मैं बॉस हूँ,” शेखर ने कहा। “मैं सही व्यक्ति को सही जगह पर रखता हूँ, इसलिए उसे प्रमोशन मिल गया। तुम्हारा सही जगह खाली है लेकिन तुम उस जगह पर काम नहीं करना चाहती।”

कही न कही वह जानती थी क्या होने वाला है। “मुझे मेरा प्रमोशन चाहिए,” वह बड़बड़ा रही थी। वह गुस्से में उबल रही थी लेकिन वह ख़ुद को रोक रही थी।

शेखर ने कंधे उचकाए। “इस स्थिति में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।”

भाड़ में जाओ,
उन्नति ने सोचा और वह केबिन से चली गई और जाते हुए उसने दरवाज़ा धड़ाम से बंद किया।

तीन लोगों के परिवार में उन्नति ही एक मात्र कमाऊ सदस्य थी। वह अपने बचपन में ही जिम्मेदारी समझ गई थी। उसके पिता, जो एक शराबी थे, उसे व उसकी माँ को पैसों के लिए पीटते थे ताकि वह जुआ खेल सके और स्वयं को शराब में डूबा सके। एक बार अपनी माँ को पिता की क्रूरता से बचाने में उसके बाँह की हड्डी टूट गई थी।

उन्नति उसकी टेबल पर पहुँची, उसने पर्स टेबल पर पटका और कुर्सी में धँस गई।

“तुम तो एक घायल शेरनी लग रही हो,” उसकी सहेली छाया ने कहा।

“वह कुत्ते का पिल्ला मुझे उसकी पर्सनल सेक्रेटरी के पद का ऑफर दे रहा है।”

“ऑफर बुरा नहीं लग रहा,” छाया ने कहा। “तनख़्वाह?”

“दोगुनी।”

“यह बढ़िया है। तो समस्या क्या है?”

“मैं कोई शो-पीस नहीं हूँ जिसे वह साज सज्जा के लिए इस्तेमाल करे,” उन्नति ने कहा। “मैं ख़ुद पर उसकी नज़रे बर्दाश्त नहीं कर सकती।”

“उसने यह ऑफर मुझे क्यों नहीं दिया?” छाया मुस्कुराई।

“तुम जानती हो,” उन्नति ने कहा, “उस चालबाज़ हृषिता को प्रमोशन मिल गया।”

छाया ने हृषिता की टेबल की तरफ़ देखा। “कैसे?” छाया ने पूछा।

“तुम समझदार हो,” उन्नति ने कहा। “तुम समझ सकती हो, कैसे?”

-

कैलाश दृढ़ उद्देश्य से मिस्टर कपूर के ऑफ़िस में दाख़िल हुए और मनीष ने बाहर निकलते समय कैलाश को झूठी मुस्कान दी लेकिन कैलाश बदले में मुस्कुरा नहीं सके। जिस बातचीत की उन्होंने कल्पना की थी वह उसमें ध्यानमग्न थे।

शेखर की टेबल पर रखे फ़ोन की घंटी बजी और उसने रिसीवर उठा लिया।

शेखर ने कैलाश को घूरा और फ़ोन पर कहा, “कौन हैं वे?”

“हेल्पिंग हैंड्स? धक्के मार के बाहर निकालो उन्हें,” शेखर ने कहा और कैलाश की तरफ़ देखा।
शेखर ने रिसीवर फेंका और कैलाश को घूरा जो बिना अनुमति अंदर आ गया था।

“सर, मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ,” कैलाश ने कहा, उनका दिल तेजी से धड़क रहा था।
शेखर कुर्सी पर पीछे झुक गया और उसने अपने हाथ सीने पर बाँध लिए।

“स... सर... मैं...” उन्होंने रूमाल से चेहरा पोंछा।

शेखर ने उसे देखा और कड़क आवाज़ में पूछा, “क्या तुम्हें छुट्टी चाहिए?”

“न... नहीं सर।”

“तो?”

“सर,” कैलाश संकोच में खड़े थे, उनका दृढ़ निश्चय कमज़ोर पड़ रहा था। “सर, मेरी बेटी की शादी...”

“बधाई,” शेखर ने उन्हें घूरते हुए कहा।

“स... सर,” कैलाश हकलाए। “मुझे पैसों की ज़रूरत है।”

“क्या तुम्हें इस महीने की तनख़्वाह नहीं मिली?” शेखर ने पेपरवेट टेबल पर घुमाते हुए कहा।

“जी सर, मुझे मिल गई,” कैलाश ने कहा। “लेकिन सर मेरी बेटी के शादी के लिए मुझे और पैसों की ज़रूरत है।”

“मैं तुम्हें तुम्हारे काम के लिए तनख़्वाह देता हूँ। तुम्हारे परिवार में  शादियों के लिए नहीं।”

“सर, मेरा ओहदा घटने के बाद से मेरी तनख़्वाह दस गुना कम हो गई,” कैलाश ने कहा। “मेरे पास मेरी बेटी के विवाह के लिए पैसे नहीं है। मैं कर्ज़ में हूँ। मुझे पैसों की बेहद ज़रूरत है। मुझे पैसे चाहिए, सर।”
शेखर ने टेबल पर घूमते पेपरवेट को रोका और कैलाश को हिक़ारत से देखते हुए कहा, “क्या तुम्हारे डिमोशन के लिए तुम मुझे जिम्मेदार मानते हो?”

“नहीं, सर।”

“तो तुम्हें लगता है मुझे सभी लोगों को उनकी बहन बेटियों की शादी के लिए अतिरिक्त पैसे देने चाहिए?”

“लेकिन सर, मुझे लंबे समय से कोई बोनस भी नहीं मिला है।”

“तुम्हें बोनस नहीं मिला, तुम्हारा डिमोशन हो गया लेकिन तुम्हें नौकरी से निकाला नहीं गया। तुम जैसे बूढ़े लोग किसी काम के नहीं, मैं फिर भी बिना किसी कारण तुम्हें तनख़्वाह दे रहा हूँ और तुम एहसानमंद भी नहीं हो। मेरे डैड एक बेवकूफ़ थे जिन्होंने तुम्हें जनरल मैनेजर बना दिया था। मुझे बताओ मैं तुम्हें तनख़्वाह क्यों दूँ।”

“सर, मैं सबकुछ कर सकता हूँ लेकिन...” कैलाश ने कहा।

“लेकिन...? लेकिन क्या?”

“आप ने मुझे दूसरे कार्य की अनुमति नहीं दी है।”

“ओह, तो यह भी मेरी ही गलती है?”

“नहीं... नहीं, सर, मेरा यह मतलब नहीं था,” कैलाश ने अपनी हथैली का पसीना अपनी पतलून से पोंछा। “सर, मैं सबकुछ कर सकता हूँ।”

“तो?”

“सर, मेरे कहने का मतलब यह हैं कि मैं फ़ाइलों को एक टेबल से दूसरी टेबल ले जाने की बजाय किसी भी दूसरी जिम्मेदारी को संभाल सकता हूँ।”

शेखर ने उनको घूरा और क्रूरता से मुस्कुराकर कहा, “फिर जाकर मेरे लिए एक कप कॉफी बनाकर लाओ।”

“लेकिन, सर?”

“हाँ?”

“मेरा मतलब इस प्रकार के काम से नहीं हैं।”

“तो मिस्टर कैलाश चंद्र, दूसरी जिम्मेदारी से आपका क्या मतलब हैं?” शेखर कुर्सी पर आगे झुका।

“सर, मैं तीस सालों से इस कंपनी में काम कर रहा हूँ और...”

“मैंने तुमसे तुम्हारा बायोडाटा नहीं पूछा,” शेखर चिल्लाया।

“सर, आप मुझे और कोई भी काम दे सकते है,” घबराए कैलाश ने सुनाई देने योग्य आवाज़ में बोलने के लिए ज़ोर लगाया।

“मतलब तुम कॉफी नहीं बनाना चाहते?”

“न... नहीं, सर।”

“प्लीज़ बताए,” शेखर ने कहा। “आप कौन सा विशेष कार्य चाहते है?”

“सर, मैं R&D में अच्छा हूँ, मैं वो कर सकता हूँ।”

“जब लोग बूढ़े हो जाते हैं तो वे कमज़ोर हो जाते हैं,” शेखर ने कहा। “तुम यह कैसे करोगे?”

“सर, मैं कर लूँगा,” कैलाश ने अपना पसंदीदा काम पाने की उम्मीद से कहा।

शेखर ने अपनी दाढ़ी खुजाई और बोला, “मुझे लगता है जो व्यक्ति कॉफी नहीं बना सकता वह कुछ नहीं कर सकता।”

“सर, मैं कॉफी बना सकता हूँ।”

“लेकिन तुम बनाना नहीं चाहते?”

“सर, मैं कॉफी बनाऊँगा।”

“ठीक है। जाओ और कॉफी बनाकर लाओ।”

ऊर्जा से भरपूर, कैलाश तुरंत ऑफ़िस से निकल गए और कुछ मिनट बाद एक कप कॉफी के साथ वापस लौटे। उन्होंने शेखर को कॉफी दी और उसके सामने उत्साह से खड़े हो गए।

शेखर ने कॉफी के दो घूँट गटके और कहा, “बढ़िया कॉफी, यह वाकई बढ़िया कॉफी हैं। आज से तुम्हारा काम है मुझे दिन में तीन बार कॉफी पिलाना।”

“लेकिन सर, R&D?” कैलाश ने पूछा।

“मैंने कहा,” शेखर चिल्लाया। “अब - से - तुम्हारा - काम - है - मुझे - कॉफी - पिलाना।”

“लेकिन सर?”

“क्या हुआ?” शेखर चीख़ा। “क्या तुम्हें कोई और नौकरी मिल गई हैं?”

कैलाश चुपचाप खड़े रहे। उनके गले से कोई अल्फ़ाज़ नहीं निकलें।

“दफ़ा हो जाओ,” शेखर ने कहा।

कैलाश अपनी पत्नी के बायपास ऑपरेशन के कारण पहले से ही कर्ज़ में थे, उन्हें पैसों की बेहद ज़रूरत थी और यह उनकी आख़िरी उम्मीद थी। उन्होंने उनकी बेटी की शादी इस उम्मीद से तय कर दी थी कि वह कैसे भी पैसों का बंदोबस्त कर लेंगे लेकिन तय तारीख पास आ रही थी और उनके पास जरा भी पैसा नहीं था। हर सप्ताह सूदखोर उनके घर आकर उन्हें पैसा लौटाने या घर खाली करने के लिए धमकाते थे।
कैलाश बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिए, उनका शिकन भरा चेहरा ग़मगीन था और उनकी बूढ़ी आँखों में उम्मीद के बुझते अंगारे थे। शादी की अनिश्चिता के डर से उनके घुटने काँप रह थे। उन्हें उस कंपनी में नौकरों की तरह काम करना क़तई पसंद नहीं था जहाँ वे कभी जनरल मैनेजर थे। और अब वे उसी कंपनी में किसी और के लिए कॉफी बना रहे थे। हालाँकि यह सबकुछ वे अपनी सारी ज़िंदगी कर सकते थे अगर इसके बदले उन्हें अपनी प्यारी बेटी के विवाह के लिए पैसे मिल जाते। कैलाश शायद पहले से ही शेखर का जवाब जानते थे लेकिन उन्होंने अपनी बेटी की ख़ातिर एक कोशिश की।
वे पैर घसीटते हुए अपनी टेबल तक गए और कुर्सी में धँस गए।
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