Sandeep Jatwa
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SECOND CHANCE
HINDI

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02
स्वप्न

एक साठ साल के बुजुर्ग व्यक्ति कुर्सी पर बैठे थे और अपने सामने की टेबल पर रखी फ़ाइल के कवर पर निशान को एकटक देख रहे थे। उनके झुर्रिदार चेहरे पर घनी भौंहें और मूँछें थी जिनमें काले व सफ़ेद बाल का मिश्रण था। उन्होंने दस साल पुराना सफारी सूट पहना था।

“कैलाशजी...”

एक आवाज़ ने जैसे उन्हें उनके गहरे ख़्वाब से जगा दिया और उन्होंने अजनबी आवाज़ की दिशा में देखा।
एक सुंदर लड़की, जिसके बाल भूरे रंगे थे और उसमें सुनहरे रंग की धारियाँ थी, उनकी ओर देख रही थी। उस लड़की का चेहरा मेकअप से लदा हुआ था जिसमें मस्कारा, फाउन्डैशन, लालिमा, लिपस्टिक व लिपग्लॉस सभी की अधिकता थी। उसके नाख़ूनों पर उसके कपड़े के रंग की नेलपॉलिश लगी थी। उसके होंठों से मरून लिपस्टिक बह रही थी। वह हाड़-मांस की लड़की की जगह कृत्रिम गुड़िया लग रही थी जिसके चेहरे की लालिमा बनावटी थी।

“कैलाशजी...” उसने नकली मुस्कान के साथ उनका नाम पुकारा।

कैलाश खड़े हुए और उसकी तरफ़ पैर घसीटकर चल दिए।

“जी,” कैलाश ने कहा।

लड़की ने मुस्कुरा कर अपने चमकदार सफे़द दाँत दिखाएँ। “कैलाशजी, क्या आप मेरा एक काम कर देंगे?” उसने अपने नकली लहज़े में मिश्री घोलते हुए कहा।

“मैंने आपको पहले कभी यहाँ नहीं देखा,” कैलाश ने कहा।

“मैं यहाँ नई हूँ। मेरा इस कंपनी आज तीसरा दिन है। मैं हृषिता हूँ।”

कैलाश ने मुस्कान से उसका अभिवादन किया।

“क्या आपको कोई समस्या है,” कैलाश ने पूछा। “मेरा मतलब है क्या आपको मदद चाहिए।”

हृषिता फिर से मुस्कुराई। उसने कहा, “यहाँ काम बहुत कठिन है और मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है लेकिन यह कोई समस्या नहीं है। मैं संभाल लूँगी।”

“फिर?”

“मुझे यह फ़ाइल मिस्टर कपूर को देना थी,” उसने कहा।

कैलाश ने सिर हिलाया।

“क्या आप प्लीज़ यह फ़ाइल मिस्टर कपूर को दे देंगे?” हृषिता ने कहा और एक फ़ाइल कैलाश के हाथ में थमा दी। “मुझे यहाँ पर बहुत सा काम करना है।”

“आप मुझसे जो चाहती हो वह यह है कि मैं यह फ़ाइल जाकर मिस्टर कपूर को दूँ।”

उसने हामी में सिर हिलाया।

“क्या तुम यह नहीं जानती कि मैं तुम्हारा सीनियर हूँ? तुम्हें यहाँ महज़ तीन दिन हुए हैं और...” क्या यह मुझे चपरासी समझ रही है? कैलाश ने सोचा।

हृषिता ने कुछ नहीं कहा लेकिन उसके चेहरे पर कोई शर्म नहीं थी।

“तुमने अपने इतने जन्मदिन नहीं मनाएं होंगे जितनी मैंने इस कंपनी की सालगिरह मनाई हैं।” उन्होंने बिना देखे ही फ़ाइल वापस हृषिता के हाथ में थमा दी। “अपना काम ख़ुद करो।”

वे अपनी कुर्सी पर वापस आए और फिर से अपने ख़्यालों में खो गए और फिर से उनकी नज़रें फ़ाइल के उसी निशान पर थी जिसे वह कुछ समय पहले घूर रहे थे।

- - -

“कैलाशजी... कैलाशजी...”

“हाँ?” कैलाश ने नज़रें उठाकर चपरासी को देखा।

“क्या आप ठीक है?” चपरासी ने पूछा।

“मैं ठीक हूँ।”

“कैलाशजी, कपूर सर आपको बुला रहे हैं।”

ये अल्फ़ाज़ उनके कान में पड़ते ही उनका चेहरा उतर गया।

“मैं आ रहा हूँ।”

चपरासी वापस चला गया।

कैलाश खड़े होकर पैर घसीटते हुए शेखर कपूर के केबिन की तरफ़ चल पड़े। वे घबरा रहे थे क्योंकि वे जानते थे कि उनके मालिक उन्हें बिलकुल पसंद नहीं करते हैं और उनकी एक भी मुलाक़ात सुखद नहीं थी।

“क्या मैं अंदर आ सकता हूँ, सर,” दरवाजे़ पर कैलाश ने कहा।

शेखर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जैसे वह सुन ही नहीं रहा था। कैलाश ने फ़र्श पर पड़ी फ़ाइलों पर निगाह डाली।

“सर...?”

शेखर ने व्यस्तता से उनकी ओर देखा और फिर से अपने काम में लग गया। द्वार पर खड़े चिंतित कैलाश, शेखर की प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर रहे थे।

“कैलाश।”

“जी सर...” कैलाश ने काँपती आवाज़ में कहा।

“मिस्टर मनीष ने जो फ़ाइल तुम्हें दी थी वह कहाँ है?” शेखर ने अपनी नज़रें लैपटॉप से नहीं हटाईं।

“सर...” कैलाश ने एक पल के लिए विचार किया, “सर, उन्होंने मुझे वह फ़ाइल मिस उन्नति को देने के लिए कहा था।”

“जाकर ले आओ।”

कैलाश कुछ पल स्तब्ध खड़े रहे जैसे वह आदेश समझ ही नहीं सके, फिर वे धीरे क़दमों से योजना विभाग की तरफ़ चल दिए। वे संगमरमर पर कुछ लड़खड़ाते हुए उन्नति की डेस्क तक पहुँचे लेकिन उन्नति वहाँ नहीं थी। उन्होंने उन्नति की डेस्क पर वह पीली फ़ाइल खोजी जो शेखर कपूर ने माँगी थी लेकिन वहाँ पर ऐसी कोई फ़ाइल नहीं थी।

कैलाश ने पास की टेबल की तरफ़ देखा। कुर्सी पर हृषिता बैठी थी।

“उन्नति कहाँ है?”

हृषिता ने कैलाश की तरफ़ देखा और अपने चमकदार होंठों पर झूठी मुस्कान फैलाकर कहा, “ओह, मुझे नहीं पता उन्नति मेड़म कहाँ है, लेकिन मुझे लगता है वह कॉफी पीने गई है।”

“मुझे त्रैमासिक योजना की फ़ाइल चाहिए,” कैलाश ने कहा। “क्या तुम्हें पता है वह कहाँ है?”
कैलाश अपना वाक्य पूरा करते इससे पहले ही हृषिता के चेहरे के झूठे मधुर भाव पैशाचिक हो गए। “वह फ़ाइल मेरे पास है।” हृषिता ने कहा और उन्हें वही फ़ाइल थमा दी जो उसने कुछ देर पहले मिस्टर कपूर के पास ले जाने के लिए कहा था। हृषिता ने उन्हें हिक़ारत से देखा।

“मैंने यह फ़ाइल तो उन्नति को दी थी,” कैलाश ने कहा। “यह तुम्हारे पास कैसे आई?”

“मैं उन्नति मेड़म को असिस्ट कर रही हूँ।”

उन्होंने फ़ाइल ली और शेखर के ऑफ़िस की तरफ़ चल दिए। वे हृषिता के चेहरे पर अवहेलना की मुस्कान नहीं देखना चाहते थे।

“सर, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?” कैलाश ने दरवाज़ा खटखटाया।

शेखर ने उन्हें अंदर आने का इशारा किया।

कैलाश चुपचाप अंदर आए और टेबल पर फ़ाइल रख दी।

“क्या मैं जा सकता-”

“फ़ाइल उठाओ,” शेखर ने उनकी बात काटते हुए कहा।

कैलाश ने शेखर की ओर शून्यदृष्टि से देखा और पाया कि वह ज़मीन की ओर इशारा कर रहा था। वे स्तब्ध खड़े थे और कुछ भी करने के लिए अशक्त महसूस कर रहे थे।

शेखर ने नज़रें उठाकर कैलाश को घूरा।

“सर...?”

“पहले मुझे फ़ाइल चाहिए,” शेखर ने कहा, उसकी आवाज़ में गुस्से की झलक थी।

कैलाश ने झुककर फ़ाइल बटोरी, उन्हें उठाकर टेबल पर रखा और इससे पहले शेखर कुछ कह सके वे केबिन से चले गए। अपनी टेबल तक जाते हुए उन्होंने अपने चेहरे पर गर्मी महसूस की लेकिन वे नहीं जानते थे कि जो वे महसूस कर रहे थे वह क्रोध था या ख़ुद पर तरस। उन्हें पसीना आ रहा था व उनके होंठ काँप रहे थे जैसे वे बस रोने ही वाले हों। एक समय था जब वे इसी कंपनी में जनरल मैनेजर थे। शेखर के पिता के लकवाग्रस्त होने के बाद जब शेखर ने कंपनी का भार सँभाला तब पहले ही महीने में उसने कैलाश को पदावनत कर दिया था। अब वे क्या थे? एक कर्मचारी या चपरासी?

आख़िरी दशक कैलाश के ज़िंदगी का सबसे बुरा वक़्त था। उन्होंने इन दस सालों में हर पल यह उम्मीद की थी कि समय बदलेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें मैनेजर के पद से मनीष क्षीरसागर द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था; मनीष एक बिलकुल प्रतिभाहीन युवक था जो उसके काम के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। कैलाश कभी यह नहीं समझ सके कि शेखर ने उन्हें पदावनत क्यों किया, हालांकि उन्हें यह अंदेशा जरूर था कि इसके पीछे क्या कारण हो सकता था। मनीष शेखर को वो चीज़े देता था जिसकी उसे ज़रूरत थी। कैलाश का मानना था कि अगर जनरल मैनेजर बनने के लिए उन्हें दलाल बनना पड़ेगा तो वे जीवनभर कर्मचारी ही बने रहना पसंद करेंगे।

जब से उनका ओहदा कम कर दिया गया था, उनकी तनख़्वाह दस गुना घट गई थी और उन्हें ज़्यादा काम भी नहीं दिया जाता था; उन्हें केवल एक टेबल से दूसरी टेबल तक फ़ाइलें लें जाने का ही काम करना होता था। इतना बुरा सलूक होने के बावजूद भी कैलाश ने कभी अपने आप को इतना साहसी नहीं पाया कि वे इस उम्र में फिर से एक नई शुरूआत कर सकें। वे सबसे ज़्यादा अपने काम की ही कमी महसूस करते थे।

-

दोपहर ढाई बजे, जब शेखर की जेब में उसका मोबाइल फ़ोन बजा, वह काँप उठा। फ़ोन कॉल, काले बादलों का भँवर और चेतावनी की तस्वीरें उसके दिमाग़ में छा गई। उसने फ़िक्र और झिझक से फ़ोन निकाला; यह उसके दोस्त डॉ. गुप्ता का फ़ोन था। ऑफ़िस में, शेखर खड़ा होकर खिड़की तक गया और उसने बगीचे की तरफ़ देखा; बच्चे अब तक जा चुके थे।

“हैलो,” शेखर ने कहा, उसका ब्लैकबेरी उसके दाएँ कान पर था।

“हैलो यार,” एक जानी पहचानी आवाज ने कहा। “मैं एक कान्फ्रेन्स के लिए ऑस्ट्रेलिया जा रहा हूँ। पंद्रह दिन में आ जाऊँगा।”

“ओ. के.”

“क्या तेरे लिए ऑस्ट्रेलिया से कुछ लाना है?”

“मेरे लिए वहाँ से कंगारू ले आना।”

फ़ोन के दूसरी ओर परिचित आवाज़ की हँसी छूट गई। “मैं जानता हूँ तुझे जानवर पसंद हैं तो तु कोई कुत्ता या बिल्ली क्यों नहीं पाल लेता? सुन, मैं जा रहा हूँ लेकिन तेरी भाभी नहीं जा रही है, आरव की परिक्षा के कारण। बस यह कहना चाहता था कि उनका ध्यान रखना जब मैं यहाँ नहीं हूँ।”

“मैं ध्यान रखूँगा।”

“थैंक्स यार।”

शेखर मुस्कुराया, “वापस आकर मुझे फ़ोन करना।”

“ओके, बाई।”

शेखर ने फ़ोन रख दिया। उसने अपने दोस्त के परिवार, उसकी पत्नी व बेटे के बारे में सोचा। और यही वो कारण था जिस कारण से उसने शादी नहीं की थी। शादी, शेखर के लिए, सिर्फ़ एक दायित्व थी। यह एक ऐसा रेस्तरां है जिसमें रोज एक ही प्रकार का भोजन मिलता हैं। उबाव! वह शादी क्यों करें जब उसे रोज अलग अलग और स्वादिष्ट भोजन मिल रहा था? शादी और कुछ नहीं सिर्फ़ सेक्स की आसान उपलब्धता थी और शेखर रोज एक ही औरत के साथ सोना नहीं चाहता था। वह शादी के लिए नहीं बना था।
शेखर वापस कुर्सी पर बैठ गया और उसने एक फ़ाइल खोल ली। एक मिनट तक फ़ाइल के पेज पलटने के बाद उसकी नज़र उसकी टेबल पर रखे काले फ़ोन पर पड़ी।

उसने फ़ाइल टेबल पर पटकी और फ़ोन का रिसीवर उठाकर एक नंबर डायल किया। “हैलो सर, शेखर कपूर बोल रहा हूँ,” उसने एक झूठी मुस्कान अपने चेहरे पर फैला ली। “आप जानते है मैं क्या चाहता हूँ। मैंने फ़ीटलैंड शू कंपनी छः महीने पहले खरीदी थी लेकिन अब तक यह मेरे किसी काम की नहीं हैं। कर्मचारी हड़ताल पर हैं न तो वे ख़ुद काम कर रहे हैं और न ही नये कर्मचारियों को काम करने दे रहें हैं।” शेखर चुप होकर सुनने लगा। “मैं जानता हूँ कोर्ट ने उन्हें स्टे दे दिया हैं लेकिन...” शेखर ने उसके होंठ चाटे। “आप पुलिस अधीक्षक है, आप तो कुछ भी कर सकते हैं... मेरा यह काम कर दीजिए और आपको मुनासिब इनाम मिल जाएगा।” शेखर ने रिसीवर वापस रखा और बुदबुदाँया, “निकम्मे साले।”

-

रात के आठ बजे, शेखर अपने बेडरूम में शराब पीते हुए समाचार देख रहा था और सरकार को कोस रहा था। उसने सफ़ेद कुर्ता पजामा पहना था, वह सोफे पर बैठा था और उसके सामने टेबल पर जिम बीम की बोतल, ग्लास, सोडा बोतल और बर्फ की बाल्टी में बर्फ रखी थी। शेखर ने एक बड़ा घूँट गटका और बेडरूम के अधखुले दरवाजे़ पर दस्तक सुनी। उसने दरवाज़े की तरफ़ देखा जहाँ लाल कपड़ों में एक ख़ूबसूरत लड़की खड़ी थी।

“सर, मैं हृषिता हूँ।”

वुमन ऑन टॉप, शेखर ने सोचा और उसे अंदर आने के लिए कहा।

हृषिता अंदर आकर सोफे पर बैठ गई।

“तुमने कब जॉइन किया?”

“सोमवार।”

“एक ड्रिंक लेना चाहोगी?” शेखर ने पूछा।

“स्मॉल।”

शेखर ने उसे कमरे के कोने में स्थित मिनी-बार से एक ग्लास लाने को कहा फिर उसमें ड्रिंक व सोडा डालकर ग्लास उसे थमा दिया।

- - -

सुबह करीब चार बजे, भ्रमित शेखर ने धीरे से आँखें खोली। वह उसके बिस्तर में था। उसने अपने दाईं तरफ़ देखा और किसी को अपने पास सोता हुआ पाया जिसकी पीठ उसके ओर थी। वह धीरे से पलंग से उतरा, दूसरी ओर गया और उसका चेहरा देखा, वह लड़की हृषिता थी। मैं यह कैसे भूल गया? शेखर ने सोचा।

शेखर ने घड़ी देखी और कराहा। शेखर नहीं जानता था कि किस चीज़ ने उसे जगा दिया था लेकिन उसकी आँखों में अब नींद नहीं थी। उसने टेबल पर रखी जिम बीम की खाली बोतल व ग्लास पर निगाह डाली, दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गया और बालकनी में ध्यानमग्न खड़ा रहा। वह नहीं जानता था वह अब क्या करने वाला था। पंद्रह मिनट बाद भी वह, विचारपूर्ण, बालकनी में टहल रहा था। उसने पास के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ देखा, चारों ओर देखने के बाद उस कमरे की तरफ़ बढ़ा और उसने धीरे से बिना आवाज़ किए दरवाज़ा खोला। कमरे के अंदर, अंधकार में एक बूढ़ा बिस्तर पर स्थिर पड़ा था जिसे देख शेखर ने अपनी धड़कने बढ़ती हुई महसूस की और उसने अपने कानों पर ज़ोर देकर वृद्ध के खर्राटे सुनने की कोशिश की जो उसके जिवीत होने का इकलौता सबूत था। उस वृद्ध को देखकर और उसके खर्राटे सुनकर शेखर ने एक अजीब सी बेचैनी महसूस की। वह वृद्ध उसके पिता, बलराज कपूर, थे जो लकवाग्रस्त थे और उन्होंने अपने जीवन के पिछले दस साल इसी पलंग पर बिताए थे।
व्याकुल शेखर ने फिर से दरवाजा बंद कर दिया और बालकनी में टहलने लगा। उसने हवा में एक अजीब चीज़ की अनुभूति की--भय?

यह दृश्य दुर्लभ नहीं था। शराब की बोतल खोलने से लेकर बालकनी में टहलना और अपने पिता के खर्राटे सुनना उसका दैनिक कार्य था। जागते हुए रातें बिताना और बेचैनी से बिस्तर में लगातार करवटें बदलने से उसे नफ़रत थी। इस समस्या के लिए उसने डॉ. गुप्ता और अन्य कई डॉक्टरों से सलाह भी ली थी और कई प्रकार के इलाज और जाँचें भी की गई थी लेकिन उसे इस समस्या से कभी निजात नहीं मिला। कई बार तो शेखर इसीलिए जाग जाता था क्योंकि उसे ऐसा लगता था जैसे कोई अदृश्य हाथ उसका गला घोंट रहा है।

साढ़े पाँच बजे वह अपने बिस्तर पर गया व हजारों दिशाहीन ख़्यालों के बाद उसकी आँख लग गई।

-

अंधेरे में, शेखर भौंचक्का खड़ा था और वह यह समझने में असमर्थ था कि वह कहाँ है। जो लेशमात्र रोशनी उसकी आँखों तक पहुँच रही थी वो उसके सिर के ऊपर लटक रहे हीरे के बड़े से झूमर से आ रही थी। इस हल्की रोशनी में वह अपने पैरों के नीचे की फ़र्श देख सकता था जो काले व सफ़ेद संगमरमर, चमकते हीरे, व काले व सफ़ेद मोतियों का बेजोड़ मेल था और सब मिलकर एक फूल बना रहे थे--एक कमल।

यह खज़ाना देख शेखर की आँखें चमक उठी और उसके भीतर के बिज़नेसमेन ने इसकी क़ीमत आँक लीं थी--लगभग सौ करोड़। उसके चेहरे के भाव उलझन में बदल गए--मैं कहाँ हूँ? इस सवाल ने उसे बेक़रार कर दिया।

उसने अपने चारों तरफ़ देखा; अंधेरे ने उसे निगल लिया था, और चमकते हीरो के अलावा वहाँ कोई रोशनी नहीं थी। उसने ज़्यादा देखने की कोशिश में अपनी आँखों पर ज़ोर दिया लेकिन अभेद्य अंधकार ने इसकी मंजूरी नहीं दी। कमरे में हल्की कँपकँपा देने वाली हवा चलने लगी; मांस जलने की दुर्गंध ने उसे साँस रोकने पर मजबूर कर दिया। उसकी उलझन और अधिक बढ़ गई और अचानक गुर्राहट से तो जैसे उसकी साँस ही अटक गई; एक गुर्राहट--शायद किसी की साँस की आवाज़। उसके रोंगटे खड़े हो गए; उसने आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन उसके पैर इतने भारी थे कि हिल भी नहीं पा रहे थे। वह अपना होंठ काटते हुए स्तब्ध खड़ा था और उसकी आँखें फटी रह गई थी। उसने फिर से वही आवाज़ सुनी और एक अनिष्टसूचक भावना ने उसे घेर लिया।

गहरी साँस खींचकर, और अपनी पूरी ताकत इकट्ठा कर उसने अपना पैर आगे बढ़ाया। उसने फिर से वही गुर्राहट सुनी और  उसे फिर से वही भयावह एहसास हुआ। अचानक एक कानफोडू दहाड़ और उसके अदृश्य बल ने उसे पीछे भव्य फ़र्श पर फेंक दिया। शेखर दहशत में था। वह यह जानता था कि उसे किसी चीज़ ने नहीं छुआ था जिसने उसे धकेला वह एक अस्पृश्य अदृश्य बल था जो बिजली की तरह गरजा था। भव्य फ़र्श पर पड़े हुए उसने कुछ होने का इंतज़ार किया, उसके पैर दहशत के मारे काँप रहे थे। अंधेरे में कुछ हरकत हुई।

अंधकार से एक विशालकाय हाथ निकला जिसने शेखर के सिर को दबोच लिया और इसके नाख़ून उसके सिर की खाल को लगभग चीरने ही वाले थे। उसकी आँखें उभर गई। उसने एक भयानक, भारी व कर्कश आवाज़ सुनी--दोषी। उसकी खोपड़ी चरमराई।

- - -

अपने आरामदायक बिस्तर पर शेखर ने आँखें खोली और माथे पर चमक रही पसीने की बूँदों को अपनी हथेली से पोंछा। उसकी उभरी हुए आँखें सुर्ख लाल थी और पसीने से सना उसका मोटा चेहरा सफ़ेद पड़ गया था। क्या यह एक सपना था? उसने अपने सिर को छुआ--अभी भी अभंग। उसने आह भरी और बैठा होकर उसने बिस्तर की दूसरी तरफ़ देखा जो खाली था, हृषिता जा चुकी थी।

तुमने अपने सपने में जो फ़र्श देखा है उसकी क़ीमत क्या होगी? एक भारी मग़रूर आवाज़ उसकी खोपड़ी में चीख़ीं। शेखर ने उसकी आँखें व भौंहें सिकोड़कर सोचा, यह कैसे हो सकता है? किसी के भी सपने के बारे जानना असंभव हैं। फिर यह कैसे हुआ?

एक घंटे बाद शेखर अपने कमरे में लंबे आईने के सामने खड़ा था और आइने से जो व्यक्ति झाँक रहा था वह पैंतीस से अड़तीस साल का मोटा और छोटे कद--पाँच फूट चार इंच--का था। उसके बाल भूरे, आँखें काली थी और उसने भूरे रंग का कोट पहना था जो उसकी हाल ही बढ़ी तौंद को ढाकने की कोशिश कर रहा था। प्रतिबिम्ब में खड़े उस आदमी ने शेखर की तौंद की तरफ़ उदासी से देखा। उसने सपने के बारे में सोचते हुए अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी पर कंघी फेरी, इस महीने में तेरहवीं बार, क्या मुझे किसी से बात करनी चाहिए? लेकिन उसके पास बात करने के लिए कोई नहीं था। उसने अपने एक मात्र दोस्त डॉ. गुप्ता के बारे में सोचा जो फिलहाल देश में नहीं थे। वह जाने के लिए पलटा, अपना मोबाइल फ़ोन जेब में रखते हुए कमरे से बाहर निकल गया और इस वक़्त भी वह सपने, फ़ोन कॉल व रहस्यमयी घटना के बारे में ही सोच रहा था। जब वह बालकनी में चल रहा था तब उसके इटालियन चमड़े के जूते किकिया रहे थे। उसका घर भूरे पत्थर का एक भव्य मकान था जिसमें अखरोट की लकड़ी का फ़र्श था।

बलकनी में उसने अपने पिता के कमरे के अधखुले दरवाजे़ की तरफ़ देखा और बिना किसी आवाज़ के उसने चुपके से अंदर झाँका। उसके पिता बिस्तर पर पड़े हुए थे। उसने उनकी तरफ़ पाँच सेकंड तक देखा और उनके दाएँ हाथ की तर्जनी में हलचल हुई। हाँ, वह ज़िंदा है। वह सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ गया और चिनार की लकड़ी से बनी सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गया।

- - -

किचन में एक वृद्ध नौकर, मनोहर, शेखर के लिए नाश्ता बना रहा था--शेखर के पसंदीदा आलू के पराठे। उसने गर्म पराठा तवे पर पलटा। मनोहर अब यह उम्मीद छोड़ चुका था कि यह घर फिर से वैसा हो पाएगा जैसा यह हुआ करता था। अब इस घर में बातों की, गानों की और हँसी की कोई आहट सुनाई नहीं देती थी। अब इस घर में जो सुनाई देता था वह था सिर्फ़ एक कानफोडू सन्नाटा। मनोहर इस घर में तब से था जब शेखर तीन साल का था, उसने इस घर को इसके सबसे अच्छे समय में, मुस्कुराते और गुनगुनाते हुए देखा था। बलराज कपूर एक ख़ुशमिज़ाज इंसान थे और उनकी पत्नी अनिता कपूर की आवाज़ बहुत मधुर थी। वह हमेशा गाती और गुनगुनाती रहती थी लेकिन अब सबकुछ बदल चुका था। मनोहर ने फिर से पराठे को तवे पर पलटा। बलराज कपूर जो कभी बहुत ख़ुशदिल थे अब स्वयं बैठ भी नहीं सकते थे और न ही स्वयं कुछ खा सकते थे। वे अब सिर्फ़ हड्डियों का एक थैला थे, श्य्याग्रस्त और विषादपूर्ण। मनोहर को सबसे ज़्यादा फ़िक्र जिस चीज़ की थी वह उनके मालिक की सेहत नहीं थी वह उनकी उदासी थी। बलराज कपूर अब शायद ही कभी बोलते थे, इसका कारण उनके शरीर के अधिकतम हिस्सों के साथ उनकी आधी जीभ का लकवाग्रस्त होना नहीं था। इसका कारण उनके दिल की मायूसी थी जिसने उनको इतना नाउम्मीद बना दिया था कि उन्हें अपना जीवन नीरस लगने लगा था।

मनोहर ने पराठे व चटनी को एक प्लेट में रखा और उसे ले जाकर वह ड्रॉईंग रूम में शेखर का इंतज़ार करने लगा। शेखर भूरा सूट व भूरे इतालवी चमड़े के जूते पहने नीचे आया और बिना दूसरी निगाह मनोहर पर डाले अपनी माँ की तस्वीर के दर्शन कर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया।

“शेखर बाबा, नाश्ता कर लो,” मनोहर ने कहा। “तुम्हारे पसंदीदा आलू के पराठे।”

शेखर रूका, पलटा और कहा, “मुझे नाश्ता नहीं करना।”

“शेखर बाबा, आप अपना ध्यान नहीं रखते, आप समय पर कुछ खाते भी नहीं।”

“काका मैं अपना ध्यान रख सकता हूँ। आपको चिंता करने की ज़रूरत नहीं है।”
शेखर जाने के लिए पलटा।

मनोहर को अच्छा नहीं लग रहा था। वे इस घर का माहौल बदलना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने बहुत कोशिशें भी की थी लेकिन कही कुछ नहीं बदल रहा था। कोई भी बदलना नहीं चाहता था ना ही शेखर ना ही उसके पिता। वे जानते थे शेखर के पिता ऐसा क्यों कर रहे थे लेकिन उन्हें बिलकुल अंदाजा नहीं था कि शेखर ऐसा क्यों कर रहा था।

शेखर दरवाज़े पर था। मनोहर ने अनिश्चितता से कहा, “शेखर बाबा, क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकता हूँ?”

शेखर पलटा और बेमन से बोला, “पूछो।”

मनोहर नहीं जानते थे कि उन्हें यह सवाल पूछना चाहिए या नहीं लेकिन यह सवाल उनके दिल पर एक बोझ था इसलिए उन्होंने कहा, “शेखर बाबा, मैं आपसे एक चीज़ जानना चाहता हूँ कि... आप... आप अपने पिता से बात क्यों नहीं करते?”

शेखर की शक्ल पर साफ़ दिख रहा था कि वह इसका जवाब नहीं देना चाहता। मनोहर ने उसकी तरफ़ देखा और जवाब का इंतज़ार किया।

शेखर बिना कुछ बोले वहाँ खड़ा रहा।

“अगर आप यह जान बुझकर कर रहे हैं,” मनोहर ने पूछा, “तो इसके पीछे जरूर कोई वजह होगी। आप मरणशय्या पर पड़े अपने पिता से बात नहीं कर रहे हैं।” मनोहर शेखर को देखते रहे।

“मैं उनसे बात नहीं करता क्योंकि...” शेखर ने कहा व कुछ देर रूककर उसने फिर से कहा, “मैं उनसे नफ़रत  करता हूँ।”

“आप अपने पिता से नफ़रत करते हैं?” इस रहस्योद्घाटन से सदमे में मनोहर ने पूछा, “क्यों?”

“क्योंकि उन्होंने मेरी माँ की हत्या की थी।” शेखर ने ऊँचे स्वर में कहा। “मैं उनसे नफ़रत करता हूँ, उन्होंने मेरी माँ की हत्या की है।”

“उन्होंने आपकी माँ की हत्या नहीं की थी।” मनोहर अपने कानों पर यकीन नहीं कर सके, उन्होंने कहा। “वह एक दुर्घटना थी!”

“वह कोई दुर्घटना नहीं थी,” शेखर चीख़ा। “उन्हें कार चलाना नहीं आती थी फिर वे कार क्यों चला रही थी और वे कहाँ जा रही थी और डैड उनके साथ क्यों नहीं थे? क्योंकि वे पैसा बनाने में व्यस्त थे!”

“यह सच नहीं है,” मनोहर ने कहा। “बड़े साहब मेमसाहब से बहुत अधिक प्यार करते थे। इस हादसे ने तो उनकी पूरी ज़िंदगी तब़ाह कर दी।”

“उन्होंने ही मेरी माँ का कत्ल किया था,” शेखर बड़बड़ाया।

“शेखर बाबा, उन्हें गुज़रे चौबीस साल हो चुके हैं,” मनोहर ने कहा। “आपने और बड़े साहब ने उन्हें खो दिया, अब जाने दीजिए। वे अपनी मृत्यु शय्या पर हैं, उनसे बात करें, उन्हें आपकी ज़रूरत हैं।”
माँ की मौत के बाद शेखर ने अपने पिता से बात करना बंद कर दिया था लेकिन दस साल पहले, बलराज कपूर के लकवाग्रस्त होने के बाद से तो वे अपनी ही औलाद का चेहरा तक नहीं देख सके थे।
“प्लीज़, उनसे बात करें,” मनोहर ने विनती की।

शेखर ने कोई जवाब नहीं दिया; उसने मनोहर की आँखों में देखा और दरवाजे़ से बाहर चला गया।
मनोहर की आँखें फैल गई और वे एक शब्द भी नहीं कह सके। उन्होंने शेखर की आँखों में कुछ देखा, ऐसा कुछ जिसकी उन्होंने तब बिलकुल उम्मीद नहीं की थी जब वे बचपन में उसे खिलाते थे। शेखर की आँखों में साफ़ दिख रहा था कि वह सिर्फ़ एक नौकर है।

मनोहर ने ट्रे की तरफ़ देखा और छोटे शेखर को याद किया--उसका मोहक चेहरा, उसकी शरारतें, उसकी प्यारी बातें। वे किचन में गए और तैश में उन्होंने पराठा और चटनी कूड़ेदान में फेंक दिए। 
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