SECOND CHANCE
HINDI
लगभग पूरी काँच की बनी एक विशाल व शानदार इमारत के प्रवेश द्वार के ऊपर धातु का एक बड़ा सा शब्द था--ऐरोवॉक। हाल ही हुई घटना को अनदेखा करते हुए, शेखर विशाल इमारत के प्रवेश द्वार की तरफ़ बढ़ा; उसकी चाल अकड़ से भरी व रौबदार थी। वह जैसे ही काँच के विशाल द्वार तक पहुँचा, नीली यूनिफार्म पहने एक दुबले-पतले और युवा सुरक्षा गार्ड ने शेखर के लिए अदब से द्वार खोला और उसका अभिवादन किया, “गुड मॉर्निग, सर।”
शेखर ने अंदर आकर उसे घूरा। युवा गार्ड भयभीत लग रहा था। “तुम्हारी टोपी तिरछी क्यों है?” शेखर ने रौबदार लहज़े में पूछा। गार्ड हकलाया लेकिन उसके गले से कोई आवाज़ नहीं निकली। उसने तुरंत टोपी सीधी की। “अब भी तिरछी है।” “माफ़ कीजिए, सर,” गार्ड हकलाया। “इसे ठीक कर लें या अपने लिए नई नौकरी ढूँढ लें।” “माफ़ कीजिए, सर। यह फिर से नहीं होगा,” गार्ड ने कहा। “होना भी नहीं चाहिए,” शेखर लिफ़्ट की तरफ़ चल दिया। गार्ड के लिए कुछ भी नया नहीं था, वही रोज सबसे पहले कंपनी में शेखर से मिलता था, शेखर को रोज उसकी यूनिफार्म में कुछ गलती नज़र आती थी और उसकी पसंदीदा थी गार्ड की टोपी। गार्ड को रोज इसके लिए डाँट पड़ती थी। उसने अपनी टोपी को सीधा रखने के लिए कई तरीके अपनाएँ थे। उसकी टोपी पर कई सारे छोटे छोटे निशान थे जो उसने टोपी को हर ओर से नापकर बनाए थे ताकि वह अपनी टोपी को सीधा रख सके लेकिन उसके मालिक को उसकी टोपी हमेशा तिरछी ही लगती थी। उसने नाक की नोक से सिर के बाल की ओर माथे पर एक अदृश्य सीधी लकीर खींची और टोपी के निशान को उस लकीर की सीध में लाकर पहन लिया। शेखर कपूर लिफ़्ट की तरफ़ तेज़ क़दमों से बढ़ रहा था, उसकी चाल अभिमान से सराबोर थी। उसने उन सभी को अनदेखा किया जिन्होंने उसका अभिवादन किया और वह लिफ़्ट में घुस गया। उसने एक नवयुवक को लिफ़्ट की तरफ़ आते हुए देखा लेकिन उसने बटन दबाकर लिफ़्ट का द्वार बंद कर दिया। शेखर अपने शानदार केबिन में दाख़िल हुआ; यह एक आयताकार कमरा था जिसमें कई चित्र, मॉर्डन आर्ट व एंटीक फूलदान थे। टेबल पर अपना बैग रखकर वह कमरे के कोने में गया जहाँ एक खूबसूरत महिला की तस्वीर पर पुष्पहार चढ़ा था। उसने महिला की आँखों में झाँका। महिला की सुंदर मुस्कान उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं ला सकी। उसने गले में गाँठ महसूस की और उसकी आँखें नम हो गई। वह सुंदर महिला उसकी माँ थी जिनकी चौबीस साल पहले एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी लेकिन शेखर की आत्मा पर यह घाव अब भी उतना ही ताज़ा था। इतने सालों बाद, आज भी जब वह अपनी माँ की आँखों में देखता था तो उसकी आँखें गिली हो जाती थी। वह वापस जाकर अपनी कुर्सी में धँस गया। चिंताकुल, उसने घंटी बजाई। सफ़ेद यूनिफार्म पहने एक चपरासी द्वार पर आया। “एक कप कॉफी,” शेखर ने चपरासी को आदेश दिया, “और मिस्टर क्षीरसागर को भेजना।” चपरासी वापस चला गया। शेखर को उसके ऑफ़िस की पेंटीग, चित्र या फूलदान या और कुछ भी पसंद नहीं था, उसे केवल उसकी कुर्सी पसंद थी जिस पर वह बैठा था। उसने अपनी टेबल पर रखे काले पत्थर के छोटे से जूते की प्रति पर नज़र डाली जो उसके पिता की निशानी थी। वे इसे अपनी टेबल पर रखा करते थे जब वे एरोवॉक के चेयरमैन थे। वे इसे पसंद करते थे और शेखर ने पिछले दस वर्षों में इसका स्थान भी नहीं बदला था। लेकिन जब भी वह इसे देखता था उसके सीने में एक टीस सी उठती थी। ध्यानमग्न, उसकी नज़र पत्थर के जूते पर थी और अचानक बादलों के भँवर, कँपकँपाता फ़ोन व अनियंत्रित कैडिलैक की तस्वीर उसकी आँखों के सामने तैरने लगी। उसने कुर्सी पर अपनी स्थिति बदली और इन छवियों को अपने दिमाग से निकाल दिया। शेखर खड़ा होकर अपने ऑफ़िस की काँच की दीवार की ओर चल दिया। उसने ऑफ़िस के सामने के बगीचें में खेल रहे बच्चों और उनके आनंदित चेहरों को देखा। बच्चों की माताएँ आपस में बात कर रही थी और बीच बीच में अपने बच्चों की पहरेदारी भी कर रही थी। शेखर ने काँच में अपना प्रतिबिम्ब देखा और एक मोटी शक्ल और फ्रेंच कट दाढ़ी वाले आदमी ने उसे वापस घूरा जिसकी उम्र पैंतीस से चालीस के बीच थी। उसने फिर से उन ख़ुशहाल बच्चों को देखा। वह भी कभी बच्चा था, वह भी कभी ख़ुश था लेकिन अब जीवन उसे एक बोझ सा लगने लगा था। एक आदमी दरवाजे़ पर आया। “सर, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?” शेखर ने पलटकर उसे देखा। “मनीष, अंदर आओ,” उसने कहा और वह आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। “सर, आज आप अलग दिख रहे है,” लंबे व दुबले-पतले मनीष क्षीरसागर ने कहा जिसके बिना-कारण-मुस्कुराते-चेहरे की वजह से वह चापलूस लग रहा था। “आप हैंडसम लग रहे हैं।” शेखर ने हाथ हिलाकर उसकी बात को ख़ारिज किया और उसे बैठने का इशारा किया। मनीष उसके सामने कुर्सी पर बैठ गया; उसकी पीठ थोड़ी झुकी हुई थी। “सर, एक नई मुलाज़िम है, मिस हृषिता...” “मुझे लोन के बारे में बताओ,” शेखर ने कहा। “क्या तुमने बैंक मैनेजर से बात की।” ”जी हाँ, सर...“ मनीष झिझका, “मैंने बैंक मैनेजर से बात की।” मनीष अपने शर्ट की जेब में कुछ खोजने लगा जैसे उसने जेब में कोई फ़ाइल रखी थी। चपरासी कॉफी का कप लेकर ऑफ़िस में दाख़िल हुआ और उसने भाप छोड़ता कॉफी का कप टेबल पर रख दिया। “मिस्टर कैलाश चंद्र को भेजो।” मनीष ने चपरासी से कहा और चपरासी हामी भरकर वहा से चला गया। शेखर ने मनीष को घूरा और कहा “कैलाश क्यों? तुम जानते हो मुझे वह पसंद नहीं।” “मैं जानता हूँ, सर,” मनीष ने कहा। “सर, हम उसे बेमतलब ही तनख़्वाह देते हैं मुझे लगा हमें अपने पैसों को उपयोगी बनाना चाहिए।” शेखर ने सहमति में सिर हिलाया। मुझे नहीं पता डैड ने कैलाश को जनरल मैनेजर क्यों चुना था। वह बिलकुल बेकार है और डैड एक बेवकूफ़ जिन्होंने उसे चुना। शेखर ने सोचा। “नई फ़ैक्टरी के बारे में बताओ,” शेखर ने कहा। “क्या निर्माण अच्छा चल रहा हैं।” “सर सबसे पहले तो मैं आपके चुनाव की तारीफ़ करना चाहूँगा--बैंगलोर! यह हमारे बिज़नेस के लिए बहुत अच्छा चुनाव हैं। निर्माण बहुत अच्छा चल रहा है लेकिन सर जल्द ही हमें कच्चे माल के लिए पैसे ट्रान्सफर करना होंगे।” “हमें निर्माण के लिए लोन चाहिए,” शेखर ने कहा, “और वो भी जल्दी।” “जी सर,” एक पल रूक कर मनीष ने कहा, “सर, क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ?” शेखर ने हामी में सिर हिलाया। “सर, जब आप उससे इतनी नफ़रत करते हैं तो उसे निकालकर बाहर क्यों नहीं कर देते?” काश मैं ऐसा कर पाता, शेखर ने सोचा। ”मैं ऐसा नहीं कर सकता,“ उसने कहा। “ऐसा क्यों, सर?” क्योंकि वह मेरे डैड का पसंदीदा था, शेखर ने सोचा लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। शेखर रोमांचित था क्योंकि उसने कड़ी मेहनत की थी और अब वह अपना बिज़नेस फैला रहा था। उसने बैंगलोर में एक ज़मीन का टुकड़ा खरीदा था और उस पर निर्माण भी शुरू हो चुका था। यह उसका एक हजार करोड़ से भी अधिक का प्रोजेक्ट था और वह इसमें अपना लगभग सबकुछ लगा चुका था। वह मशीनों के लिए बैंक से पहले ही लोन ले चुका था और वह अब निर्माण के लिए भी एक लोन लेने की कोशिश कर रहा था। उसके नए फ़ैक्टरी की मशीन जर्मनी के बेहतरीन इंजीनियरों द्वारा बनाई जा रही थी जो बनने के बाद सीधे बैंगलोर पहुंचा दी जाने वाली थी। शेखर ने मनीष क्षीरसागर को एक कार्य सौंपा था। “बैंक के संपर्क में रहे और उन्हें इस लोन के लिए राज़ी करें।“ शेखर ने कहा था और मनीष ने एक चिकनी चुपड़ी मुस्कान के साथ “जी हाँ” कहा था व सहमति में सिर हिलाया था। “सर! क्या मैं अंदर आ सकता हूँ,” एक बूढ़े आदमी ने पूछा जिसने दस साल पुराना फटा-पुराना सफारी सूट पहना था। शेखर ने सिर हिलाया। “कैलाशजी अंदर आइए,” मनीष ने झूठी मुस्कान के साथ कहा। कैलाश एक फ़ाइल के साथ अंदर दाख़िल हुए। “वो फ़ाइल कहाँ है?“ मनीष ने पूछा। “जो मैंने आपको दी थी।” कैलाश ने उसे वह फ़ाइल थमा दी जैसे वह पहले से जानते थे उन्हें क्यों बुलाया गया था। “सर, बैंक मैनेजर ने कहा आपका लोन जल्द ही स्वीकृत हो जाएगा।” मनीष ने फ़ाइल में से पढ़ा। “क्या तुमने उन्हें बताया कि,” शेखर ने पूछा, “हमें यह लोन जल्द से जल्द चाहिए वरना हमें बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।” “जी हाँ, सर,” मनीष ने कहा। “और उन्होंने मुझे कहा कि...” वह फ़ाइल में ढूँढते हुए बुदबुदाया, “एक सेकंड सर।” उसने फ़ाइल के पेज पलटे। “उन्होंने हमारी त्रैमासिक रिपोर्ट माँगी है।” कैलाश, सफारी सूट पहने बूढ़े आदमी, ने कहा। शेखर व मनीष दोनों ने उसकी ओर देखा। मनीष ने शेखर की तरफ़ देखा। “जी सर! उन्होंने हमारी त्रैमासिक रिपोर्ट माँगी है।” “क्यों?” शेखर ने पूछा। मनीष ने फिर से फ़ाइल में देखा और जवाब खोजने लगा। कैलाश ने कहा, “सर, वे जानना चाहते हैं कि एरोवॉक लोन का भुगतान कैसे करेगी।” “जी सर,” मनीष ने कहा। “यह अभी तक क्यों नहीं किया गया?” शेखर ने पूछा। “और मनीष तुमने तो कहा था कि बैंक मैनेजर हमारे पक्ष में है।” “जी सर,” मनीष ने कहा और जवाब के लिए अपने आसपास देखा। “सर, उन बैंक मैनेजर का महाराष्ट्र ट्रान्सफर हो गया है और नये बैंक मैनेजर, मिस्टर पिल्लई, काफी कठोर है। वे जानना चाहते हैं कि हम इस लोन का भुगतान कैसे करेंगे।” शेखर ने कैलाश को घूरा। “क्या मैंने तुमसे पूछा है?” कैलाश ने नज़रें नीचे झुका ली। उनके झुर्रिदार चेहरे पर भय दिखाई दे रहा था। “दफ़ा हो जाओ यहाँ से,” शेखर ने दाँत भींचते हुए कहा। कैलाश ऑफ़िस से चले गए। शेखर ने मनीष की तरफ़ देखा जो डरा हुआ लग रहा था। “बैंक मैनेजर से बात करो और उसे कैसे भी लोन के लिए जल्द से जल्द मनाओ,” शेखर ने कहा और वह खड़ा होकर खिड़की की ओर चल दिया। “और ऐसा क्यों हैं कि कैलाश सबकुछ जानता है और तुम कुछ नहीं?” “सर!” मनीष भी खड़ा हो गया, “मैं थोड़ा सा व्यस्त था तो मैंने बैंक मैनेजर से बात करने का काम कैलाश को सौंप दिया था।” शेखर मनीष की तरफ़ मुड़ा। “क्या तुम नहीं जानते यह मामला कितना अहम है? अगर तुम्हें किसी की मदद की ज़रूरत थी तो भी तुम्हारे पास कितने सारे विकल्प थे, कैलाश ही क्यों? उसे इन सब से दूर रखो।” “माफ़ करें, सर।” “उन्नति शर्मा से कहो वह इस मामले को देखें, मिस्टर पिल्लई या वह जो कोई भी है उससे बात करो और उन्नति से कहो उसे लोन के लिए किसी भी क़ीमत पर राज़ी करे।” “जी सर,” मनीष ने कहा। शेखर ने मनीष को देखा और कहा, “तुम जा सकते हो।” मनीष दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा और दरवाज़े के पास पलटकर उसने कहा, “सर, नई मुलाज़िम मिस हृषिता आपसे आपके घर पर मिलना चाहती है। क्या मैं उसे भेज दूँ।” शेखर ने उसकी तरफ़ देखा और हामी में सिर हिलाया। “आज रात?” शेखर ने फिर से सिर हिलाया। मनीष चला गया। दो घंटे बाद, शेखर अपने ऑफ़िस में काम कर रहा था और टेबल के दाएँ कोने पर रखे फ़ाइलों के ढ़ेर से नीली फ़ाइल निकालने पर उसने गलती से सारी फ़ाइलें नीचे गिरा दी। उसने ज़मीन पर गिरी फ़ाइल पर एक निगाह डाली और उन्हें नज़रअंदाज़ करते हुए उसने नीली फ़ाइल खोली व उसे पढ़ने लगा। उसने अपनी टेबल पर रखी घंटी बजाई। चपरासी दरवाज़ा पर आया और आदेश का इंतज़ार करने लगा। उसने ज़मीन पर पड़ी फ़ाइलें देखीं और उन्हें उठाने के लिए वह आगे बढ़ा। “कैलाश को भेजो,” शेखर ने कहा। फ़ाइलें ज़मीन पर ही छोड़कर चपरासी बिना देर किए लौट गया। *** 2 |
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